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Birsa Munda 125th Death Anniversary : बिरसा मुंडा का संघर्ष और राष्ट्रीय पहचान, पढ़ें अनुज कुमार सिन्हा का लेख

Prabhat Khabar
9 Jun, 2025
Birsa Munda 125th Death Anniversary : बिरसा मुंडा का संघर्ष और राष्ट्रीय पहचान, पढ़ें अनुज कुमार सिन्हा का लेख

Birsa Munda Punyatithi 2025 : बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय पहचान मिलने में बहुत वक्त लग गया. हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों ने भगवान बिरसा मुंडा के महत्व को समझा. बिरसा मुंडा आदिवासी हितों के लिए लड़नेवाले आदिवासियों के लिए संघर्ष के प्रतीक हैं और लोग उन्हें भगवान मानते हैं.

Birsa Munda Punyatithi 2025 : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े आदिवासी नेता, जल-जंगल और जमीन पर आदिवासियों के हक के लिए लड़नेवाले आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा से जुड़ी दो तिथियों-नौ जून (शहादत दिवस) और 15 नवंबर (जन्मदिन) का इस साल खास महत्व है. आज उनकी शहादत के 125 साल पूरे हो रहे हैं और 15 नवंबर को उनके जन्म के 150 साल पूरे होंगे. लंबे समय तक इतिहासकारों ने बिरसा मुंडा के योगदान की उपेक्षा की. अब भगवान बिरसा मुंडा को देश के सर्वकालीन सबसे बड़े आदिवासी नेता के तौर पर मान्यता मिल चुकी है. उनके उलगुलान (1895-1900) को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा माना जाने लगा है. उनकी जन्मस्थली उलिहातु को अब राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है. उनके जन्मदिन (15 नवंबर) को जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर पूरा देश मनाता है. संसद में भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा स्थापित की गयी है. राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू (15 नवंबर, 2022) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (15 नवंबर 2023) उलिहातु जाकर आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा को नमन कर चुके हैं. झारखंड ही नहीं, कई अन्य राज्यों में भी बिरसा मुंडा की प्रतिमा लगी है.


बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय पहचान मिलने में बहुत वक्त लग गया. हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों ने भगवान बिरसा मुंडा के महत्व को समझा. बिरसा मुंडा आदिवासी हितों के लिए लड़नेवाले आदिवासियों के लिए संघर्ष के प्रतीक हैं और लोग उन्हें भगवान मानते हैं. वर्ष 2011 में जब अंतिम बार जनगणना हुई थी, तब आदिवासियों की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा थी. लोकसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं. उत्तर-पूर्व के अलावा मप्र, ओडिशा, झारखंड, असम, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में आदिवासियों की आबादी अच्छी-खासी है. नौ जून, 1900 को रांची के जेल में बिरसा मुंडा की मौत हुई थी. उनकी मौत और बिरसा समर्थक मुंडाओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन समाप्त हो गया था. तब कोलकाता के अखबारों में ही कुछ समय तक मुंडा आंदोलन की चर्चा होती थी. धीरे-धीरे वह भी बंद हो गयी. वर्ष 1911-12 में एससी राय चौधरी बिरसा मुंडा को पहली बार दस्तावेज में ले आये. उसके बाद बिरसा मुंडा को भुला दिया गया. बिरसा मुंडा और उनके योगदान को फिर से ‘आदिवासी पत्रिका’ चर्चा में ले आया. वर्ष 1939 में जब जयपाल सिंह आदिवासी महासभा का अध्यक्ष बने थे, तब ‘आदिवासी पत्रिका’ (संपादक राय साहेब बंदी उरांव और जूलियस तिग्गा) ने एक खास अंक निकाला था, जिसमें बिरसा मुंडा की तसवीर छपी थी (कैद में हथकड़ी के साथ). आदिवासी महासभा में तब ‘महात्मा बिरसा की’ जय का नारा गूंजा था, जो बताता है कि तब तक आदिवासी महासभा से जुड़े लोगों के लिए बिरसा मुंडा का कितना महत्व था. बाद में जयपाल सिंह ने ‘बिहार हेराल्ड’ में बिरसा मुंडा के योगदान की चर्चा की थी. वर्ष 1940 में रामगढ़ के कांग्रेस अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस वाले कार्यक्रम में एक द्वार का नाम ‘बिरसा द्वार’ रखा गया था. जयपाल सिंह की नेताजी के साथ नजदीकी संबंध के कारण बिरसा मुंडा का नाम आया था. टी मुचि राय मुंडा ने सबसे पहले 1950 में बिरसा मुंडा पर किताब लिखी. सुरेंद्र प्रसाद सिन्हा (टीआरआइ) ने 1964 में किताब लिखी, पर सबसे ज्यादा चर्चा तब हुई, जब कुमार सुरेश सिंह (आइएएस अधिकारी) ने अनेक प्रमाणों के साथ बिरसा मुंडा पर किताब लिखी. इतिहासकार केके दत्ता ने भी बिरसा आंदोलन पर ‘फ्रीडम मूवमेंट इन बिहार’ में लिखा. बिरसा मुंडा का तैलचित्र संसद में लगा. उन पर डाक टिकट (15 नवंबर, 1988) जारी हुआ.


बिरसा मुंडा का झारखंड में क्या सम्मान है, इसका पता इससे चलता है कि अगस्त, 2000 में ही झारखंड अलग राज्य बनने का विधेयक लोकसभा से पारित हो चुका था, पर राज्य का विधिवत गठन करने के लिए जो पवित्र दिन चुना गया, वह था 15 नवंबर, यानी भगवान बिरसा मुंडा का जन्मदिन. बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय महत्व मिलने में तेजी तब आयी, जब देश ने आजादी का अमृत महोत्सव मनाने की तैयारी की. वर्ष 2016 में राजनाथ सिंह को उलिहातु भेजा गया था. दो-तीन दिन बाद 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भारत की आजादी में बिरसा मुंडा और गुमनाम आदिवासियों के योगदान की चर्चा की. पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले से बिरसा मुंडा का नाम लिया था. इसमें और तेजी आयी जब उनके जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस’ के तौर पर हर साल मनाने का निर्णय लिया गया. झारखंड समेत कई राज्यों में आदिवासी म्यूजियम बनाये गये.


अगर अपने लोगों ने गद्दारी नहीं की होती, तो अंगरेज बिरसा मुंडा को गिरफ्तार नहीं कर पाते, उनके आंदोलन का इलाका और व्यापक होता, जिससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को बड़ी मदद मिलती. डुंबारी की लड़ाई के बाद भी जब बिरसा मुंडा अंगरेजों की पकड़ में नहीं आये, तो उन्होंने बिरसा मुंडा पर पांच सौ रुपये का इनाम घोषित किया. इसी पांच सौ के चक्कर में बंदगांव से दूर संतरा के घने जंगलों में रह रहे बिरसा मुंडा की जानकारी सात लोगों ने दी. उनमें से कोई अंगरेज नहीं था. सभी वे लोग थे, जिनके हक के लिए बिरसा मुंडा लड़ रहे थे. इन्हीं लोगों की गद्दारी से बिरसा मुंडा पकड़े गये और अंतत: 25 साल से भी कम उम्र में शहीद हो गये. बिरसा मुंडा के आंदोलन को कुचलने और उन्हें पकड़ने के लिए अंगरेज कितने व्याकुल थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी गिरफ्तारी या डुंबारी में गोलीबारी के दौरान सीनियर अंगरेज अधिकारी खुद घने जंगलों में पहुंच गये थे. जो भी हो, बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंगरेजों को आदिवासियों की जमीन की समस्या को समझने पर मजबूर कर दिया और अंतत: उन्होंने छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट लागू किया. इसके बावजूद आज भी वे कुछ कारण मौजूद हैं, जिनके लिए बिरसा मुंडा ने उलगुलान किया था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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